संदेश

बरेठिन

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कुछ लोग इतने सरल सीधे होते हैं की उनको जानना, समझना जितना आसान होता है, लिखना उतना ही मुश्किल। एक घंटे से सोच रहा हूँ की शुरुआत कहाँ से करूँ? चलिए शुरू से शुरू करते हैं। होश सँभालने के बाद से घरवालों के अलावा जिन चेहरों को सबसे पहले पहचाना उनमे से एक वो भी थीं- लम्बा कद, ममता भरा चेहरा, आधे पके खिचड़ी बाल, गले में चाँदी की मोटी हँसुली, हाथ में कड़े और सर पे कपडे की एक बड़ी सी गठरी; बरेठिन। मां उनको यही बुलाती थीं और हम सब भी। बड़े होने के साथ साथ बरेठिन के बारे में बाकी बातें पता चलती गयीं, मसलन वो हमारी काफी पुरानी धोबन हैं, हमारे और उनके बाबा-दादा के ज़माने से। वो खुद भी उम्र में बड़ी थीं, उनके बेटों ने अब चौराहे पे कपडे धोने और इस्तरी करने की दुकान खोल ली हैं, लेकिन बरेठिन अभी भी पुराने तरीके से हफ्ते में २ बार कपडा लेने और पहुँचाने आती हैं। कभी जब माँ व्यस्त होती तो मेरी जिम्मेदारी होती कपडा देने की बरेठिन को। हर बार एक बात होती की जब १६ कपडे से ज्यादा होता तो मैं १७-१८ बोलता लेकिन बरेठिन बोलतीं "एक सोरही एक कपड़ा, एक सोरही दुइ कपड़ा--". उत्सुकतावश एक दिन पूछ बैठा  तो बरेठिन

टिकुली (बिंदी)

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समय एवं स्थान - 80 का दशक, गोरखपुर   घर के अहाते में नीम के पेड़ के नीचे गिरे हुए पत्ते और उनसे खेलते लाल वाले चींटों को बड़े ध्यान से देख रहा था की तभी माँ ने खाने के लिए आवाज़ लगाई । बाहर वाला नलका बहुत टाइट था, मेरे से दबता भी नहीं था ठीक से, पूरा झूल गया हैंडिल से तब जाके हाथ धोने भर पानी निकला, अपनी हॉफ पैंट में हाथ पोंछता आँगन में भागा। दीवाली के बाद वाला मौसम, जाड़ा पड़ना अभी ठीक से शुरू नहीं हुआ था लेकिन सुबह शाम ठंड लगती थी, ऊपर से रसोई भी खुले आँगन में थी तो खाना खाते समय और ठंड महसूस होती थी, इसीलिए सब लोग चूल्हे के पास ही बैठना चाहते थे। पापा अपना पीढ़ा पहले ही चूल्हे के पास जमाए हुए थे और मम्मी तवे पे गरम गरम रोटिया बना उनकी थाली में परोस रही थीं। बड़ी सी थाली में दाल और आलू के चोखे के साथ पापा मजे से रोटियां खा रहे थे, दाल और चोखा मिल न जाए और रोटियां दाल में गीली ना हो जाएं इसलिए पापा ने थाली के निचे एक ईंट का छोटा टुकड़ा रख के एक तरफ से ऊँचा कर रखा था, उनको ऐसे ही अच्छा लगता था खाने में, सब कुछ एक थाली में परोस के। मम्मी रोज की तरह पूजा के बाद सीधे रसोई में भिड़ गयीं थीं।

तुम

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 एक आशा एक विश्वास हो तुम मेरी अविरल खुशी का एहसास हो तुम मेरा रोजा मेरा उपवास हो तुम मेरी प्रार्थना मेरी अरदास हो तुम मेरे जीवन के उपवन में पलाश हो तुम कभी न साथ छोड़े वो आस हो तुम मेरी धडकन मेरी सांस मेरी प्यास हो तुम मेरी धरती मेरा आकाश हो तुम अब और क्या कहूँ, क्या मांगूं प्रिये जब हमेशा के लिए मेरे पास हो तुम. -दीपक  17-अगस्त-2012

मुझे तुम मिल गयी...

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कदम बढ़ाऊ या खड़ा रहूँ  स्थिर, अविचल  जैसे खड़ा हूँ एक लम्बे समय से  एक अन्तर्द्वंद सा चल रहा था मन में। सैकड़ों प्रश्न विचर रहे थे मस्तिष्क में  एक छोर से दुसरे छोर तक अनुत्तरित से.  क्या चल सकता हूँ मैं , क्या आगे बढ़ सकता हूँ मैं गहरी शंका थी, संकोच था एक कमजोर हो चुके मन में. याद आया फिर, माँ का आश्वासन - 'बेटा सब ठीक है, अच्छा होगा',  मित्रों से मिलती प्रेरणा, बल; 'डरो मत, निकलो, आगे बढ़ो'  निश्चय किया, विश्वास किया और एक कदम आगे बढाया. अचानक जैसे धुंध छटने लगी, रोशनी सी फ़ैल गयी मेरे आस पास  और उस रोशनी में पहली बार दिखाई दी 'तुम'. एक सरल छवि, मुस्कुराता चेहरा मद्धम, चपल, बोलती सी आँखें और उन आँखों के पीछे छुपी चंचलता, उन्मुक्तता, स्नेह, सरलता. छोटी से नाक, उसपे चमकता लौंग कुछ कहने को आतुर अधखुले होठ उनके पीछे मोतियों से दांतों की झांकती हुई लड़ी मैं देख रहा था तुम्हें, प्रतीक्षारत था के तुम कुछ बोलो तुम्हारे होठ हिले और एक खनकती सी आवाज़ आई 'पहले कुछ खाने को मंगाइए, भूख लगी है...' और, मुझे तुम मिल गयी...  हृदय के तार स्पंदित हुए संवेदनाए जागृत होने लगीं

पकौड़े

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समय एवं स्थान - 80 का दशक,  गोरखपुर    मेरी मौसी का घर ज्यादा दूर नहीं है तो अक्सर बचपन में वहां जाता था। बहुत सारी यादें जुडी हैं वहां से। निजी सड़क, जो एक खूब बड़े से लोहे के गेट को जाती थी, गेट के अन्दर दोनों तरफ पेड़, फूल, और भी कई तरह के पौधे। बड़ा सा अहाता, शिव जी का मंदिर, चरखी लगा हुआ कुवां और आखिरी में एक बड़ी सी कच्ची हवेली और साथ लगा हुआ एक पक्का मकान, अंग्रेजी तरीके से बना हुआ। कुछ अलग सा लगाव था मुझे उस माहौल से जो हमेशा अपनी तरफ खींचता था। ये बात तब की हैं जब मैं ३-४ साल का था और मौसी के घर गया था, कुछ धुंधली सी यादें हैं बाकि माँ और मौसी बताती हैं। बचपन में मैं खाने पीने का बहुत शौक़ीन था। एक दिन सुबह सुबह मौसी रसोई में पकौड़े तल रही थीं, माँ उनकी मदद कर रही थी। मौसा जी से मिलने अक्सर सरकारी लोग आते रहते थे, तहसील से, थाने से। मैं एक खाली प्लेट लेके मौसी के पास गया और बोला "मौसी पकौड़े दो, बाहर सिपाही को खिलाना है ", मौसी ने सोचा थाने से कोई सिपाही आये होंगे और मौसा जी ने बोला होगा लाने को, उन्होंने प्लेट में पकौड़े दे दिए। थोड़ी देर बाद मैं फिर आया खाली प्

मेरी दीवाली

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प्रदीप्त दीपक में ईधन रूपी तेल की कुछ आखिरी बूंदें, चीत्कार कर रही थी, कोई तो आकर उन्हें बुझने से रोके. लाल पीली हिलती डुलती सी लौ कमजोर पड़ती जारही थी जिसका था इंतज़ार उसके आने की आस दम तोडती जारही थी. मेरी सूनी आंखे टिकी हुई थी उस टिमटिमाती लौ पे जो अपने जन्म के समय तेज़ थी, पूरी दुनिया को समेटने की ताकत रखती थी. पर इस समय तक उसका सामर्थ्य इतना क्षीण हो चुका है के मेरे प्रियतम का इंतज़ार भी नहीं कर सकती. किन्तु मुझे तो उसकी प्रतीक्षा करनी है, और मैं करूँगा भी क्यों की उसने वादा किया है दीपक की इस लौ में आने का मैं अकेला नहीं हूँ वो मेरे साथ है ये एहसास दिलाने का . वो आना भी चाहती है मेरे पास लेकिन, मुझसे अलग भी उसकी एक दुनिया है जहाँ उसके लिए अविरल प्रेम बहता है  दोस्त हैं, नातेदार हैं, परिवार है सबके लिए इसका भी तो कुछ कर्तव्य बनता है..  मुझे भय सिर्फ इतना है कहीं वो अपनी दुनिया में जा कर मुझसे किया हुआ वादा भूल न जाए. मैं जनता हूँ ये मेरा भ्रम है शायद उसके आने में देरी के कारण... लेकिन मुझे विश्वास भी है की वो अवश्य आयेगी; और, मेरी सारी प्रतीक्षा की थकान मिट जाएगी.  बस, मुझे इस लौ को

अपाहिज

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उस शाम जब मैं अंजान पथिक की तरह अजनबी से रास्ते पर, अपनी खामोशियों के साथ मंजिल से कुछ फासले पर, बढा  जा  रहा था. अचानक, दूर बहुत दूर सूरज की आखिरी किरण के साथ, एक कंपकंपाता साया नजर आया उस रात के पहले चरण के साथ. मुझे लगा, वोही मेरी मंजिल है, जिसकी मुझे तलाश थी येही वो साहिल है. लेकिन जैसे – जैसे मैं उस साए की तरफ बढ रहा था,  सूरज की आखिरी किरण के साथ उस साए का कद भी घट रहा  था और जब मैं वहां पहुंचा, मेरी मंजिल मुझसे बहुत दूर जा चुकी थी, और ढलती रात की अँधेरे की स्याही, मेरे अस्तित्व  पर  छा चुकी थी. चाँद मुस्कुरा रहा था मेरी बेबसी पर, क्योंकि मैं एक अपाहिज हूँ.  और अपनी मंजिल को दौड़ कर नहीं पकड़ सकता हूँ, भगवान के अन्याय के कारण समाज की सहानुभूति का और दया का पात्र हूँ. फिर एक बार मैं तन्हा खड़ा था एक नए हौसले के साथ अन्जान पथिक की तरह अजनबी से रास्ते पर अपनी खामोशियों के साथ एक नयी मंजिल की तलाश में… - दीपक 26 - Oct - 1999