बरेठिन
कुछ लोग इतने सरल सीधे होते हैं की उनको जानना, समझना जितना आसान होता है, लिखना उतना ही मुश्किल। एक घंटे से सोच रहा हूँ की शुरुआत कहाँ से करूँ? चलिए शुरू से शुरू करते हैं। होश सँभालने के बाद से घरवालों के अलावा जिन चेहरों को सबसे पहले पहचाना उनमे से एक वो भी थीं- लम्बा कद, ममता भरा चेहरा, आधे पके खिचड़ी बाल, गले में चाँदी की मोटी हँसुली, हाथ में कड़े और सर पे कपडे की एक बड़ी सी गठरी; बरेठिन। मां उनको यही बुलाती थीं और हम सब भी। बड़े होने के साथ साथ बरेठिन के बारे में बाकी बातें पता चलती गयीं, मसलन वो हमारी काफी पुरानी धोबन हैं, हमारे और उनके बाबा-दादा के ज़माने से। वो खुद भी उम्र में बड़ी थीं, उनके बेटों ने अब चौराहे पे कपडे धोने और इस्तरी करने की दुकान खोल ली हैं, लेकिन बरेठिन अभी भी पुराने तरीके से हफ्ते में २ बार कपडा लेने और पहुँचाने आती हैं। कभी जब माँ व्यस्त होती तो मेरी जिम्मेदारी होती कपडा देने की बरेठिन को। हर बार एक बात होती की जब १६ कपडे से ज्यादा होता तो मैं १७-१८ बोलता लेकिन बरेठिन बोलतीं "एक सोरही एक कपड़ा, एक सोरही दुइ कपड़ा--". उत्सुकतावश एक दिन पूछ बैठा तो बरेठिन